हिसार उत्सव में हरियाणवी पगड़ी बनी आकर्षण का केन्द्र

October 7, 2022

हिसार उत्सव में हरियाणवी पगड़ी बनी आकर्षण का केन्द्र

सेल्फी विद हरियाणवी पगड़ी ने मोहा पर्यटकों का मन

हिसार, 07 अक्टूबर रवि पथ :

हरियाणा पर्यटन विभाग की ओर से हिसार में आयोजित तीन दिवसीय हिसार उत्सव का आगाज हो चुका है। हिसार उत्सव में जहां एक ओर हरियाणा का क्राफ्ट पर्यटकों का आकर्षण बना हुआ है वहीं पर दूसरी ओर हरियाणवी पगड़ी अपना खूब रंग जमा रही है। बाहर से आने वाले पर्यटक सेल्फी विद हरियाणवी पगड़ी के माध्यम से पगड़ी के साथ फोटो लेकर हिसार उत्सव में लुत्फ उठा रहे हैं।
हरियाणवी संस्कृति के विशेषज्ञ एवं युवा एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम विभाग के कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के निदेशक डॉ महासिंह पूनिया ने बताया कि हरियाणवी पगड़ी बांधने की उत्सवों में शुरुआत रत्नावली समारोह में 2015 से हुई थी। आज हरियाणवी पगड़ी जन-जन में लोकप्रिय हो चुकी है। उन्होंने बताया कि पगड़ी का मानव जीवन से परस्पर गहरा नाता है। समाज ने शरीर के अंगों को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए पगड़ी, कुर्ता, धोती, जूती आदि वस्त्रों को मान्यता प्रदान की, लेकिन इन सबमें पगड़ी को सर्वोच्च स्थान मिला है। हरियाणवी लोक जीवन में पगड़ी को पग, पाग, पग्गड़, पगड़ी, पगमंडासा, साफा, पेचा, फेंटा, खण्डवा, खण्डका, मंडासा, तुर्रा, मंडासी, साफा, रूमालियो, परणा, शीशकाय, जालक, मुरैठा, मुकुट, कनटोपा, पेचा, मदील, मोलिया और चिंदी आदि नामों से जाना जाता है, जबकि साहित्य में पगड़ी को रूमालियो, परणा, आदि नामों से जाना जाता है। वास्तव में पगड़ी का मूल ध्येय शरीर के ऊपरी भाग को सर्दी, गर्मी, धूप, लू, वर्षा आदि विपदाओं से सुरक्षित रखना रहा है, किंतु धीरे-धीरे इसे मान और सम्मान के प्रतीक के साथ जोड़ दिया गया। लोक जीवन में पगड़ी की विशेष महत्ता है। पगड़ी की परम्परा का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। पगड़ी जहां एक ओर लोक सांस्कृतिक परम्पराओं से जुड़ी हुई है, वहीं पर सामाजिक सरोकारों से भी इसका गहरा नाता है। हरियाणा के खादर, बांगर, बागड़, अहीरवाल, बृज, मेवात, कौरवी क्षेत्र सभी क्षेत्रों में पगड़ी की विविधता देखने को मिलती है। प्राचीन काल में सिर को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए पगड़ी का प्रयोग किया जाने लगा। पगड़ी को सिर पर धारण किया जाता है। इसलिए इस परिधान को सभी परिधानों में सर्वोच्च स्थान मिला। अनादि काल से वर्तमान तक पगड़ी ने अपनी हजारों वर्ष की यात्रा के अंतर्गत अनेक रंग, रूप, आकार, प्रकार बदले किन्तु मूलरूप से पंगड़ी में कोई परिवर्तन नहीं आया। पगड़ी का पारंपरिक इतिहास की शुरुआत भगवान शिव की जटाओं से होती है। शिव अपने केशों को पगड़ी आकार रूप में बांधते थे। संभवत: आदि देवता शिव से ही प्रेरणा पाकर पगड़ी को बांधने की शुरुआत हुई। आरम्भिक काल में शिव की परम्परा से जुड़े हुए साधु-संत अपने केशों को पगड़ी-आकार में बांधने लगे। समाज में जब वर्ग-व्यवस्था की स्थापना हुई, तो पुरुषों ने केश कटवाने शुरु कर दिए, किंतु आदिकाल से चली आ रही पगड़ी की परम्परा ने केशों के स्थान पर कपड़े की पगड़ी के रूप धारण कर लिया। इतना ही नहीं, ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पगड़ी का परिधान तो सिंधु घाटी की सभ्यता से भी पहले था। उस समय नर और नारी दोनों ही पगड़ी पहनते थे। इस युग में इसे ‘उष्राशि’ के नाम से पुकारा जाता था। उस समय पगड़ी मूलत: सूत्ती कपड़े, रेज्जे, रंगीन रेशम की बनी होती थी।